Haunted Express - 1 in Hindi Horror Stories by anirudh Singh books and stories PDF | हांटेड एक्सप्रेस - (भाग 01)

Featured Books
Categories
Share

हांटेड एक्सप्रेस - (भाग 01)

पालमपुर,
हिमांचल प्रदेश के कांगड़ा जिले का एक छोटा सा रेलवे स्टेशन।
दिसम्बर की इस सर्द रात में ढेड़ बजे मेरे लिए पूरी तरह अनजान था यह स्टेशन और फिर ऊपर से कड़कड़ाने वाली ठंड के साथ काले घने अंधेरे के साथ लिपटा वह घनघोर कोहरा।
जिस ट्रेन से मैं यहां आया था उसको गुजरे दो घण्टे बीत चुके थे,तब से न तो कोई यात्री गाड़ी यहाँ से गुजरी थी,और न ही मालवाहक ट्रेन।
टीनशेड़ के नीचे बने उस छोटे से प्लेटफार्म के चारो ओर से खुले हुए वेटिंग रूम में कम्बल ओढ़ कर दुबका हुआ मैं सुबह होने का इंतजार कर रहा था...क्योकि इस स्टेशन पर उतरने के बाद अपने गंतव्य स्थल पर जाने के लिए इस वक्त तो कोई वाहन मिलने की उम्मीद थी नही।
अब तो स्टेशन पर खुली हुई एकमात्र चाय नाश्ते की दुकान पर भी ताला लग चुका था, शायद दूसरी कोई ट्रेन इस स्टेशन से हाल फिलहाल गुजरने वाली नही थी।

"उफ्फ ! दादाजी ,आप तो शांति पूर्वक चले गए, ये मुझे कहां फंसा दिया ।"

एक गहरी सांस लेते हुए मैंने अपने दिवंगत दादाजी के प्रति शिकायत व्यक्त की।

दरअसल मैं
मैं यानि गौरव सिंह भाटी,मूलतः दिल्ली से हूँ,
उम्र लगभग तीस साल,
पेशे से देश के प्रतिष्ठित 'अब तक' न्यूज चैनल में एक पार्ट टाइम रिपोर्टर हूँ,
पार्ट टाइम मतलब विशेष परिस्थितियों में यदि मुख्य रिपोर्टर्स किसी घटना को कवर करने के लिए अनुपस्थित होते हैं तो ऐसी इमरजेंसी में चैनल द्वारा मुझसे काम चला लिया जाता है,
आप मुझे एक स्टर्गलिंग रिपोर्टर भी कह सकते हैं।
अभी कुछ दिन पूर्व ही मेरे दादाजी लगभग 90 वर्ष की उम्र में चल बसे , वर्षो पहले दादाजी रेलवे में स्टेशन मास्टर हुआ करते थे,
वर्ष 1970 से 1980 तक उनकी पोस्टिंग हिमांचल के इसी पालमपुर के आसपास किसी देवगढ़ नामक छोटे से कस्बे थी।
वैसे तो देवगढ़ जैसी छोटी सी जगह के लिए अलग से ट्रेन रुट होने का कोई औचित्य नही था,पर ब्रिटिश काल में यहां एक बड़ा व्यापारिक केंद्र हुआ करता था,इस वजह से वर्ष 1879 में यहां ट्रेन रुट का आरम्भ हुआ, बाद में अंग्रेजो ने सुविधा की दृष्टि से अपने उस व्यापारिक केंद्र के रूप में पालमपुर को विकसित किया और फिर देवगढ़ की उपयोगिता दिन प्रतिदिन घटती गयी, परन्तु आजादी के बाद भी देवगढ़ के ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए सरकार ने वहाँ तक के लिए जारी ट्रेन को हमेशा पूर्ववत रहने का वायदा किया,
पर बाद में किसी अपरिहार्य कारण से सरकार ने देवगढ़ तक ट्रेन की सुविधा समाप्त कर दी थी,
दादाजी ने इसके पीछे की वजह एक बड़े हादसे का होना बताया था,फिर दादाजी ने भी अपना ट्रांसफर दिल्ली करवा लिया था।
मृत्यु से पहले अंतिम समय मे दादाजी ने मुझसे प्रॉमिस करवा लिया था कि मैं हर हाल में देवगढ़ जाऊंगा, एवं उस गांव में पुराने रेलवे स्टेशन के परिसर में मौजूद प्राचीन शिव मंदिर में उनके नाम से पूजा अर्चना करूंगा, जिस से कि उनकी अंतिम इच्छा पूरी हो सकें और उनकी आत्मा को शांति मिल सकें।

तो इस तरह मन मे तमाम सवाल लेकर मैं दादाजी के बताए स्थान पर पहुंचने का प्रयास कर रहा था।

ठिठुरन भरी इस सर्दी में पैरों को सिकोड़ कर कम्बल के अंदर खुद को एक गठरी जैसा बनाते बनाते आखिर आंख लग ही गयी।

चारो ओर कुछ पुराने खण्डहर थे,और मैं उन खण्डहरों के बीच से निकल कर गए एक कच्चे रास्ते से होता हुआ तेज कदमों के साथ आगे बढ़ रहा था,
सिर से पैर तक मैं बुरी तरह पसीने से तरबतर होकर कांप रहा था,बार बार मुड़ कर पीछे देखते हुए मैं उसी मंदिर की ओर बढ़ रहा था, जिसके बारे में अभी थोड़ी देर पहले ही उस जटाधारी साधू ने बताया था,
उसने कहा था कि उन खण्डहरों को पार करते ही एक पुराना कुँआ मिलेगा,उस कुंए से बांयी ओर मुड़ जाना, सामने एक प्राचीन मंदिर जर्जर अवस्था में मिलेगा,उसी मन्दिर में पहुंच कर तुम्हारे प्राण भी बच सकेंगे,और वह काम भी सार्थक हो सकेगा जिसके लिए तुम यहाँ आये हो।
मैं बस हर हाल में उसी मन्दिर तक पहुंचने की कोशिश कर रहा था,
चमगादड़ो का यूँही यहां वहां उड़ना, और सियारो के रोने की आवाज ने इस सुनसान,बियाबान माहौल को और खौफनाक बना दिया था।
अचानक से पीछे से आते घोड़े के टापों की तेज होती आवाजों ने मुझे डरा दिया था,
मैने अपनी गति बढ़ाते हुये अब दौड़ना आरम्भ कर दिया था,
घोड़े की हिनहिनाहट मुझे विचलित कर रही थी,
कोई था,जो अब मेरे बहुत करीब आ चुका था ।

दौड़ते,भागते मैं अब थक कर चूर हो चुका था,सांसे धौंकनी की तरह तेज चल रही थी,पर मजबूरी वश रुक नही सकता था,क्योंकि उस साधू के अनुसार, रुकने पर मेरे पीछे आ रहे उस घुड़सवार द्वारा मेरा सर कलम कर दिया जाएगा।
अचानक से रास्ते पर पड़े एक पत्थर की जोरदार ठोकर ने मुझे जमीन पर ला पटका,
डरा सहमा मैं,इस से पहले उठ पाता,एक काले रंग के विशाल घोड़े पर सवार वह नकाबपोश घुड़सवार मेरे सामने खड़ा था,उसने अपना जिस्म पर एक मटमैले रंग के पतले से कम्बल जैसे कपड़े से ढक रखा था और चेहरे पर कोई मफलर जैसी चीज थी,जिससे मैं उसका चेहरा नही देख पा रहा था,हाथ में एक बड़ी सी तलवार,जिससे टपकता हुआ रक्त ,बता रहा था कि अभी इस तलवार ने किसी और के खून से भी अपनी प्यास बुझाई है।
मेरे सिर पर मौत खड़ी थी,और मैं ज़मीं पर पड़ा हुआ दहशत से थर थर कांप रहा था।
उस नकाबपोश ने बिना देर किए घोड़े पर बैठे हुए ही थोड़ा नीचे की ओर झुक कर अपनी उस रक्तपिपासु तलवार से मेरी गर्दन पर वार किया,मेरी गर्दन बस धड़ से अलग होने ही वाली थी,इसी भय से मेरी आँखें बंद हो चुकी थी,एवं मुंह से एक जोर की चीख निकली।

पर अभी तक उस तलवार का प्रहार मेरी गर्दन पर नही हुआ था,आखिर क्यों? यह जानने के लिए जैसे ही मैने आंखे खोली तो माजरा समझ आया ,दर असल आज फिर मैंने वहीं डरावना सपना देखा था,जिसे पिछले कुछ वर्षों में अनगिनत बार देख चुका था।
वही घोड़ा,वही नकाबपोश,वही साधू,और वही खूनी तलवार,और हमेशा की तरह आज भी इस सपने ने मेरी हालत पतली कर दी थी,
अभी कुछ देर पहले तक जो कम्बल मेरी सर्दी तक नही बचा पा रहा था,उसी कम्बल के अंदर मेरा जिस्म पसीने से नहा चुका था,दिल की धड़कन असामान्य रूप से भाग रही थी।
खैर,मैं अभी तक सपना देख रहा था,इस सच्चाई का पता चलने पर मैंने चैन की सांस लेते हुए ईश्वर को धन्यवाद दिया।
पर आखिर क्यों मुझे इस प्रकार का एक ही विचित्र सपना बार बार आता है?
हमेशा की तरह फिर एक बार इस प्रश्न ने मेरे दिलोदिमाग में उथलपुथल मचा दी थी।

फिर अचानक से दिल में एक डरावना ख्याल आया कि कहीं जिस शिव मंदिर मैं दादाजी की अन्तिम इच्छा पूरी करने जा रहा हूँ,वह एवं मेरे सपने में जिस मन्दिर का जिक्र वह साधू करते है ,दोनो एक ही तो नही।

फिर खुद ही मस्तिष्क में आ रहे इस प्रकार के विचारो को दफन करते ही स्वंय को सांत्वना देते हुए बड़बड़ाया,ऐसा सम्भव नही।

.......कहानी जारी रहेगी......